निःसंदेह इस वाक्य के पीछे राजा राममोहन राय की बुद्धिमत्ता, उनके वास्तविकतापूर्ण विचार, उनका अप्रतिम व्यवहारिक ज्ञान, और उनकी असाधारण प्रगतिशील सोच हैं। पृथमदृष्टया लगता है की हमारा समाज धर्म, जाति और विचारों में बंटा हुआ है।
अगर हम इस ज्ञान की बारीक रेखा की ओर अपनी दृष्टि ले जायेंगे तो देख पाएंगे की यह समाज ‘बुद्धि’ के कारण ही वर्गीकृत है। गोरे लोगों ने कालों को ज्ञान देना अपने सिर का बोझ माना था। उन्हें अपनी आधुनिक तकनीकि, उच्चस्तरीय युद्धायुधों, समुद्री जहाज बनाने की संप्रभुता और अपने प्रगतिशील विचारों पर बड़ा अभिमान था।
भारत में भी शास्त्रों के ज्ञान वाले पंडितों, युद्ध कला में पारंगत योद्धाओं और अर्थ कुशलता में निपुण सेठों ने स्वयं को सवर्ण कह डाला। पर क्या सचमुच यह ज्ञान विभाजनकारी होना चाहिए? आधुनिक भारत के पहले राजनीतिक विचारक राजा राममोहन राय का यह मानना कदापि नहीं था।
उनके अनुसार यदि मनुष्य की रूढ़िवादी मानसिकता उसके विकास में बाधक है, उसके उर में अपने अधिकारों के प्रति उदासीनता का भाव है, और वह अपने जीवन को अंधविश्वासों के अंधेरे में बंद किए हुए है तो उसे सिर्फ आधुनिक ज्ञान से ही प्रगति के पथ पर ले जा जा सकता है। मानव मन को पवित्र करने के लिए ज्ञान रूपी अग्नि आवश्यक है।
राममोहन राय ने पता लगा लिया था कि भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं और महिला अधिकारों के प्रति निराशा उन्हें संपत्ति और सहदायिक अधिकारों का न मिलना था। इसके लिए उन्होंने न सिर्फ सरकार के सहयोग से इसका हल निकालने का प्रयास किया बल्कि समाज में अपने भाषणों और लेखों से जागरूकता फैलाने का काम किया। वो जानते थे कि जागरूकता फैलाने से ही लोगो में सजगता आएगी और उसके लिए उन्हें जमीनी स्तर पर काम करना होगा।
मानव मन कई प्रकार से अंधकारमय हो सकता है। मानव रूढ़िवादी हो सकता है। वह अशिक्षित हो सकता है। शायद उसे अंधविश्वासों ने घेर रखा हो। ऐसा भी हो सकता है की मनुष्य के जीवन का उद्देश्य महज धनोपार्जन हो और उसने अपने जीवन को एन केन प्रकारेण बस पैसा कमाने के लिए लगा दिया है। इंसान को अपने जीवन का उद्देश्य न पता होना भी उसके जीवन के अंधेरे को दर्शाता है।
एक गांव में एक महिला से जब पूछा गया की इतने जेवर और आभूषण क्यों पहनती हो तो उसने तपाक से उत्तर दिया, "ये दिखाते हैं की हम सुहागन हैं।" बाद में उससे जब पूछा गया कि क्या तुम्हारा सुहाग भी इतने ही जेवर पहनता है? तो वो सवाल पूछने वाले की ओर गुस्से में घूरने लगी।
उसे देख कर लग रहा था जैसे सबने ने उसके अस्तित्व पर ही संदेह कर दिया हो। वह गुस्से में बोली, "औरत बनी ही है इसके लिए।" यह घटना ठीक मेरे सामने उस वक्त हुई थी जब गांव में एक गैर सरकारी संगठन सर्वे कर रहा था। खुद का पेट काट काट कर जेवर खरीदना और उन्हें शादी के वक्त बेटी को दे देना हमारे यहां आम है। बेटी भी अपनी ससुराल में खुद को जेवरों से लाद कर रखती है क्योंकि इन्हीं से उसके मायके की प्रतिष्ठा के बारे में पता लगता है।
यहां तक कि एक पढ़ी लिखी शिक्षित महिला भी जेवरों से उतना ही प्रेम करती है जितना की वो नासमझ। साक्षर होना और ज्ञानी होना दोनो भिन्न हैं। ज्ञान साक्षरता से नहीं आता। साक्षरता तो ज्ञान की ओर ले जाने की महज एक चाभी है। दरवाजे के पीछे एक लंबा रास्ता तय करना होता है।
साक्षरता तो एक कड़ाही है जिसमे कच्चे आटे को तपा कर ज्ञान का हलवा निकला जाता है। यह ज्ञान अगर पूर्ण है तो सतत विकास और उन्नति का मार्ग खोल देता है। अगर यह अपूर्ण रह जाए तो मनुष्य को पंगु बना देता है। अपूर्ण ज्ञान कलिंग सर्प के विष से भी ज्यादा प्राणघातक माना जाता है। ठीक वैसे ही जैसे चक्रव्यूह को भेदने के लिए अभिमन्यु उसमे घुस जरूर गया परंतु उससे बाहर नहीं आ पाया।
ज्ञानी व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति सजग होता है। वह स्वाभिमानी जरूर होता है पर अहंकारी नहीं होता। उसके पास तर्कशीलता होती है जो उसे बाकी लोगों से इतर करती है। वह परम सत्य की ओर बढ़ चलता है और हमेशा सत्य पर अटल रहता है। ज्ञान होने पर कई बार मनुष्य मितभाषी भी हो जाता है।
वह अपने शब्दों को धन के जैसे बचा कर रखता है और बहुत जरूरी होने पर ही खर्च करता है। ज्ञान जीवन में सजगता के द्वार खोल देता है। मनुष्य हर चीज का कारण जानने की कोशिश करता है। हर एक अनुभव को तर्कशीलता के पैमाने पर रखता है। वह अपने जीवन का उद्देश्य पता लगाने का सतत प्रयत्न करता रहता है।
मेरे एक मित्र ने अपने जीवन के चार बहुमूल्य साल प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में व्यर्थ कर दिए। वह बचपन से ही पढ़ाई में कच्चा था। उसे भी यह बात अच्छे से पता थी। वह एक मोबाइल की दुकान खोलना चाहता था। आखिर क्या वजह है जो उसके जैसे लड़के प्रतियोगी परीक्षाओं में आंखे बंद कर के कूद पड़ते हैं? क्या भारत में और कोई व्यवसाय या काम नहीं बचा है? इसका कारण भी ज्ञान की कमी ही दिखती है।
लोग न तो सजग दिखते हैं न ही जागरूक। और हिम्मती तो उससे भी कम। एक ज्ञानी व्यक्ति में उपरोक्त गुण कूट कूट कर भरे होते हैं। अपनी संकुचित सोच के कारण लोगों के लिए एक अफसर बनना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में सबसे बड़ा व्यक्ति उन्हें ही पाया है। संकुचित सोच से ऊपर उठना ही ज्ञान प्राप्त करना है।
ज्ञानी व्यक्ति वृहद्दृष्टा होता है। कोई भी वह काम जो मनुष्य की नैतिकता और आदर्शो के विरुद्ध हो, उसके मन का अंधकार दर्शाता है और जब बात मन के अहंकार, ईर्ष्या, अंधविश्वास, दकियानूस, रूढ़िवाद, संकुचता, और अज्ञान जैसे अंधकार की हो तो उसे सिर्फ इस ज्ञान की ज्योति के द्वारा ही ज्योतिर्मान किया जा सकता है।
ज्ञान ही जीवन को सार्थक बनाता है। आप के पास धन है तो सुरक्षा भी है। परंतु क्या उससे एक सार्थक जीवन की प्राप्ति होती है? क्या उस धन से प्रसन्नता और शांति प्राप्त की जा सकती है? इन चीजों के लिए ज्ञान होना परमावश्यक है। बाहरी अंधकार एक बल्ब जला कर दूर किया जा सकता है मगर भीतरी अंधकार को दूर करने के लिए ज्ञान रूपी दीपक जरूरी है।
राजा राममोहन राय एक ऐसे भारतीय समाज का स्वप्न देख रहे थे जिसमे प्रगतिशीलता और आधुनिकता हो। उनके उदारवादी विचार आधुनिक समाज को बुनने के लिए धागे का काम कर रहे थे। ऐसे में उन्हें पता था की ये विकास लोगों में बिना ज्ञान और तर्कशीलता के जन्मे संभव नहीं है।
उन्हें इस बात का भी भान था की मनुष्य जीवन में सबसे महत्वपूर्ण उसकी सजगता है जिसके कारण उसे अपने मूलभूत अधिकारों और अपने उत्तरदायित्वों का पता चलता है। वे न सिर्फ एक प्रगतिशील समाज चाहते थे बल्कि वे लैंगिक मतभेदों को भी समाप्त करना चाहते थे।
स्त्री अधिकारों के प्रति उनके विचारों का कार्यान्वयन जमीनी स्तर पर खासकर पीछे छूटे वर्गों में जागरूकता फैलाने से हुआ। उनके इन्ही स्वप्नों के कारण ही हम आधुनिक भारत की यह तस्वीर देख रहे हैं जहां हम धीरे–धीरे समता, समानता और एकता की अप्रतिम प्राप्ति की ओर बढ़ रहे हैं।
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